Wednesday, August 6, 2014

धर्म के प्रकार

धर्म के प्रकार  :
* धर्म की परिभाषा अनेक प्रकार से होती है। मनुष्य मात्र के लिए धर्म एक होता है जिसका नाम है - मानवता! 'धारयति इति धर्म' अर्थात् 'जो धारण किया जाता है'। जो-जो गुण, कर्म और स्वभाव मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए उचित होते हैं' उनको धारण करने को धर्म की संज्ञा दी गयी है।
** अलग-अलग वस्तुओं तथा जीवों (शरीर धारियों) के लिए धर्म की परिभाषा बदल सकती है। जैसे गर्मी को अग्नि से धारण किया जाता है तो गर्मी अग्नि का धर्म है। उसी प्रकार जल का धर्म है - तरलता, कोमलता, शीतलता आदि देना। बिच्छू, सांप, ज़हरीले जीव काटते हैं, गाय घास खाकर भी दूध देती है, शेर शिकार करके माँस खाता है, वृक्ष फल-फूल देते हैं, लकड़ी जलकर कोयला बनती है....आदि। प्रत्येक धातु के अलग-अलग गुण, कर्म स्वभाव होते हैं अतः वे सब उन के धर्म कहाते हैं।
*** ईश्वर, जीव और प्रकृति के भी धर्म अलग-अलग होते हैं।
**** प्रत्येक वास्तु अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही जानी जाती है।
***** ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है, जीव सत्य और चेतन है तथा प्रकृति सत्य है। ये उनके धर्म हैं।
****** सबका धर्म एक है - ऐसा कहना ठीक नही है। सब मनुष्यों का धर्म एक है - ऐसा कहना ठीक है।

अन्त्येष्टि संस्कार

जिज्ञासा : मृत शरीर का अन्तिम संस्कार श्मशान में पुरानी विधि-विधान से अग्नि में करना चाहिए या आधुनिक बिजली-भट्टी में करना चाहिए?

समाधान : आर्ष ग्रन्थों के आधार पर मृत शरीर का अन्तिम संस्कार (दाह संस्कार) श्मशान भूमि में अग्नि में होना चाहिए।
ज़माना बदल रहा है। नई तकनीक और सुविधाएँ उपलब्ध हो रही हैं। श्मशान में आधुनिक बिजली की भट्टियाँ जोड़ी गयी हैं ताकि थोड़े समय में शरीर का दाह संस्कार सम्पन्न हो सके। अब देखना है कि दोनों विधियों में कौन सी विधि बेहत्तर है?
1) पहली विधि में लकड़ियाँ, सामग्री, शुद्ध घी तथा अन्य सुगन्धित पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है तथा अन्त्येष्टि संस्कार में बहुत अधिक समय लगता है। लगभग दो घण्टे लगते हैं।
2) आधुनिक बिजली-भट्टी की विधि में न लकड़ियों की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही अन्य वस्तुओं की। समय की दृष्टि से भी समय की बहुत बचत होती है। आधे घण्टे के भीतर ही क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाता है।
अन्त्येष्टि का मुख्य काम है - पार्थिव शरीर को भस्म करना अर्थात् वह वायु मण्डल को दूषित किये बिना अग्नि में जलकर पञ्च महाभूतों में पूरी तरह से विलीन हो जाए।
अब विचारणीय बात है कि मृत्यु को प्राप्त पाषण शरीर Electric Furnace में जले या लकड़ी में भस्म हो जाए, दोनों में शरीर को कोई फ़र्क नहीं पड़ता परन्तु सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि से सोचें तो दोनों विधियों में परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हो सकती है।
मैंने दोनों विधियाँ देखी हैं। उनमें मैंने एक अन्तर देखा है।
1 - वैदिक अन्त्येष्टि विधि में पंडितों द्वारा लगभग 101 मन्त्रों के उच्चारण से दाह संस्कार सम्पन्न होता है और शरीर को भस्म होने में काफ़ी समय लगता है। परिवार-जनों को अस्थियाँ दूसरे दिन ही मिलती हैं।
2 - वहीं दूसरी आधुनिक electric श्मशान में पौराणिक विधि से कुछ मन्त्रों के साथ पाँच-आठ मिनिटों में ही सब क्रिया-कर्म समाप्त होता है और आधे घण्टे के भीतर ही शरीर पूर्णरूपेण भस्म हो जाता है। परिवार जनों को तुरन्त ही अस्थियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं।
अब निर्णय मृतक के परिवार पर है कि वे किस रीती से दाह-संस्कार करना चाहते हैं।
मेरी अपनी राय के अनुसार दोनों ही विधियाँ ठीक हैं क्योंकि प्रथम विधि आर्ष ग्रन्थों के अनुकूल है। दूसरी विधि भी ठीक है यदि बिजली चूल्हे (furnace) में डालने के पूर्व अर्थी के ऊपर पर्याप्त मात्र में घी और सामग्री  मिलकर तथा जो-जो सुगन्धित वस्तुएँ वायु को प्रदूषित करने से रोकें, उनको भी डाल दी जाएँ। और वेद मन्त्रों के साथ दाह संस्कार होता है तो उसमें किसी को आपत्ति नहीं होगी।

Wednesday, July 23, 2014

Vedic Dharma वैदिक धर्म: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?

Vedtic Dharma वैदिक धर्म: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?

जैसे आप समजते हैं वैसे नहीं अपितु यहां दर्शन का अर्थ है उसकी अनुभूति करना।

Tuesday, July 22, 2014

क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?

प्रश्न: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?
उत्तर : अवश्य होते हैं पर वैसे नहीं जैसे आप इस समय सोच रहे हैं !
* ईश्वर स्वभाव से चेतन है और चेतन तत्त्व निराकार होता है इसलिए ईश्वर का दीदार, देखना या दर्शन करने का तात्पर्य होता है - उसकी सत्ता का ज्ञान होना, उसकी अनुभूति (feeling) होना! इसी feeling को दार्शनिक भाषा में 'ईश्वर साक्षात्कार' कहते हैं।
* "दृश्यन्ते ज्ञायन्ते याथातथ्यत आत्मपरमात्मनो  बुद्धिन्द्रियादयोतिन्द्रियाः सूक्ष्मविषया येन तद दर्शनम् "||
अर्थात् जिससे आत्मा, परमात्मा, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि सूक्ष्म विषयों का प्रत्यक्ष = ज्ञान होता है, उसको दर्शन कहते हैं। इसलिए कहते हैं कि ईश्वर को देखने के लिए ज्ञान-चक्षुओं की आवश्यकता होती है, चरम-चक्षुओं (भौतिक नेत्रों) की नहीं!।
* पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - 1) जड़ और 2) चेतन। जड़ वास्तु ज्ञानरहित होती है और चेतन में ज्ञान होता है। प्रकृति तथा उससे बनी सृष्टि की प्रत्येक वास्तु जड़ होती है। परमात्मा और आत्मा दोनों चेतन हैं।
* चेतन (आत्मा) को ही चेतन (परमात्मा) की अनुभूति होती है। चेतनता अर्थात् ज्ञान।
* हमारे नेत्र जड़ होते है, देखने के साधन हैं और जो उनके द्वारा वस्तुओं को देखता है वह चेतन (जीवात्मा) होता है। जह वस्तुचेतन को नहीं देख सकती क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं होता पर चेतन वास्तु (आत्मा और परमात्मा) जड़ और चेतन दोनों को देख सकती है।
* अतः ईश्वर का साक्षात्कार आत्मा ही कर सकता है शर्त यह है कि आत्मा और परमात्मा के बीच किसी भी प्रकार का मल, आवरण या विक्षेप न हो अर्थात् वह शुद्ध, पवित्र और निर्मल हो अर्थात् वह सुपात्र हो।
* ईश्वर की कृपा का पात्र (सुपात्र) बनाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अमूल्य जीवान को वैदिक नियमों तथा आज्ञाओं के अनुसार बनाए, नियमित योगाभ्यास करे और अष्टांग योग के अनुसार समध्यावस्था को प्राप्त करे। समाध्यावास्था में ही ईश्वर के साक्षात्कार हो सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है।
* इस स्थिति तक पहूँचने के लिए साधक को चाहिए कि वह सत्य का पालन करे और किसी भी परिस्थिति में असत्य का साथ न दे। जब तक जीवन में सत्य का आचरण नहीं होगा ईश्वर की प्राप्ति या उसके आनन्द का अनुभव (feeling) नामुमकिन है जिस की सब को सदा से तलाश रहती है।.......Madan Raheja

Saturday, July 5, 2014

मेरे कुछ अनसुलझे प्रश्न

कर्म बड़ा या मूर्ती पूजा?
क्या कोई निकम्मा व्यक्ति मूर्तिपूजा करे और उसकी मनोकामना पूरी होगी?
एक महेनती व्यक्ति मेहनत करके रोज़ी-रोटी कमाता है। दोनों में कौन अच्छा?

मेरे प्रश्न :

1) क्या शिर्डी के एक फ़कीर को जिस का नाम 'साईंबाबा' रखा गया है उसे भगवान् का दर्जा दिया जा सकता है?
2) क्या अयोध्या के राजा श्री रामचन्द्र भगवान् और द्वारिका के राजा श्री कृष्णचन्द्र भगवान् की मंदिरों में स्थापित मूर्तियों के पास में साईंबाबा की मूर्ती का रखा जाना उचित है?
3) क्या साईं बाबा की तुलना भगवान् से हो सकती है? यदि हाँ तो क्यों और कैसे? यदि नहीं तो आजकल ये अनर्थ कैसे?
4) शंकराचार्य का बयान कि 'साईंबाबा भगवान् नहीं है' कहाँ तक सही या ग़लत है?
5) साईं बाबा धार्मिक व्यक्ति थे या अधार्मिक और कैसे?
6) 'ऐश्वर्यस्य वीरस्य यशस्य श्रियः। ज्ञान  वैराग्य्योश्चैव षष्णां भग इतीरणा'।।(विष्णु पुराण 6/5/74) के अनुसार जिस व्यक्ति में ऐश्वर्य, बल, यश, श्री (धन, सम्पदा), ज्ञान और वैराग्य - ये छः गुण विद्यमान होते हैं उनको 'भगवान्' की उपाधि से सुशोभित किया जाता है।
श्री राम और श्री कृष्ण जैसे महापुरुषों को तो भगवान् कह सकते हैं परन्तु एक फ़कीर (भिखारी) को भगवान् कहना भगवान् शब्द का अपमान करना है।
7) जो व्यक्ति माँसाहारी था तथा ...... और मस्जिद में रहता था उस व्यक्ति की तस्वीर को  मंदिर में रखना और उसकी भगवान् की तरह पूजा करना कहाँ तक सही है? यह अज्ञानता की पराकाष्ठा नहीं है?
8) जिस व्यक्ति के मुँह से कभी 'राम' नहीं निकला उस व्यक्ति के नाम के साथ 'राम' का नाम जोड़ना (साईं राम) कहाँ की बुद्धिमात्ता है?
9) लोग निराकार ईश्वर के स्थान पर गढ़े मुर्दों/ मज़ारों/क़ब्रों की पूजा करते हैं अधार्मिक कार्य करते हैं। ये सब क्या हो रहा है?
10) कोई पंडित, आचार्य, गुरु, सद्गुरु, शंकराचार्य, साधू, संत, मौलाना, पादरी, ब्राह्मण या विद्वान् आदि धर्म के ठेकेदार हमें सही मर्ग्क्यों नहीं दिखाता? आपका अपना
.............http://vedicdharma.com

Friday, June 22, 2012

'बाल शंका समाधान' ....मदन रहेजा

यह एक छोटी सी पुस्‍तक विशेषकर छोटे बच्‍चों के लिये लिखी गई है जिससे उनके माता-पिता भी लाभ उठा सकते हैं।

क्‍या आप जानते हैं?

आज-कल के बच्‍चे इतने समझदार और चतुर होते हैं कि कभी-कभी उनके धर्म सम्‍बन्‍धी प्रश्नों का सटीक उत्तर उनके माता-पिता भी नहीं दे पाते हैं क्‍योंकि वे स्‍वयं स्‍वाध्‍याय ही नहीं करते। माता-पिता को निरुत्तर कर बच्‍चे स्‍वयं को ही श्रेष्‍ठ समझने लगते हैं। स्‍मरण रहे कि बच्‍चे की सर्वप्रथम गुरु उसकी माता होती है, द्वितीय गुरु उसके पिता तथा तृतीय गुरु उसके विद्यालय के शिक्षक होते हैं। यदि ये तीनों ही गुरु बच्‍चों को धार्मिक शिक्षा से वञ्चित रखते हैं तो आप ही सोचिये कि हमारे बड़े होने का क्‍या अर्थ रह जाता है तथा हमारी अपनी सन्‍तान बड़ी होकर क्‍या और कैसी बनेगी?
धर्म की सही जानकारी के बिना मनुष्‍य, मनुष्‍य नहीं बन सकता। दिखने में चाहे सभी मनुष्‍य जैसे लगते हों परन्‍तु वास्‍तव में वही मनुष्‍य है जिसे मनुष्‍यता का ज्ञान है तथा अपने कर्त्तव्‍यों का पालन करता है। धर्म किसी को हिन्‍दू, मूस्लिम, सिक्‍ख या ईसाई बनना नहीं सिखाता अपितु उसे मनुष्‍य बनना सिखाता है। क्रिश्चियन स्‍कूलों में मदर मैरी एवं जीसस् क्राईस्‍ट की प्रार्थना सिखाई जाती है, मुस्लिम मदरसों में इस्‍लाम का इल्‍म तथा नमाज़ पढ़ना सिखाया जाता है, हिन्‍दुओं के पाठशलाओं में मूर्ति के समक्ष प्रार्थना गीत गाने की शिक्षा दी जाती है और आर्य समाजों के विद्यालयों में संध्‍या और हवन करना सिखाया जाता है और साप्‍ताहिक धार्मिक शिक्षा की कक्षा प्रदान की जाती है। शेष बच्‍चे ऐसे स्‍कुलों में पढ़ते हैं जहाँ प्रारम्भिक सुविधाएँ (लिखने के लिये काले बोर्ड, पढ़ने के लिये पुस्‍तकें और यहाँ तक कि बैठने तक की सुविधा) उपलब्‍ध नहीं होती। हमारा भविष्‍य कैसा होगा, इसका निर्णय आप महानुभव स्‍वयं ही लगा सकते हैं।
सर्वविदित है कि हमारे देश में धर्मनिर्पेक्ष का नारा लगाकर भोली-भाली जनता को गुमराह किया जाता है क्‍योंकि धर्म मात्र एक होता है, अनेक नहीं। बच्‍चे नादान होते हैं। उनको बचपन में जो पढ़ाएँगे सा सिखाएँगे, वे जीवन भर उसीको सत्‍य मानकर व्‍यवहार करते हैं। सत्‍यासत्‍य के भेद को समझने के लिये उन्‍हें धर्म का सही ज्ञान प्रदान कराना अत्‍यन्‍तावश्‍यक है।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे अपने मित्रों सहित गान्‍धीधाम स्थित जीवन प्रभात में जाने का सुवासर प्राप्‍त हुआ। वहाँ के बच्‍चों से मिलकर बहुत प्रसन्‍नता हुई। मैंने तत्‍काल निर्णय लिया कि मेरी आगामी पुस्‍तक आधुनिक बच्‍चों के लिये होगी, जिसका शीर्षक होगा बाल प्रश्नोत्तरीबाल प्रश्नोत्तरी के माध्‍यम से हमारे देश के होनहार बच्‍चे ही नहीं, उनके माता-पिता एवं सगे-सम्‍बन्‍धी को भी सत्‍य सनातन वैदिक धर्म के बारे में सामान्‍य ज्ञान प्राप्‍त हो सकेगा। कुछ ही महीनों के भीतर आर्य समाज गांधीधाम के आचार्य श्री वाचोनिधि के सहयोग द्वारा बाल प्रश्नो प्रश्नोत्तरी पुस्‍तक का प्रकाशन जीवन प्रभात के बच्‍चों के लिये निःशुल्‍क वितरण किया गया। इस पुस्‍तक में धार्मिक शिक्षा की प्रारम्भिक आवश्‍यक जानकारी उपलब्‍ध कराई गई है।
बाल पश्‍नोत्तरी को बच्‍चों तथा उनके परिवार के लोगों ने बहुत पसंद किया है। जिन बच्‍चों के माता-पिता ने इस पुस्‍तक को देखा है उनके विशेष आग्रह पर मैं उपरोक्‍त पुस्‍तक को परिवर्धित करके समाज के सभी स्‍कूली बच्‍चों के लिये बाल शंका-समाधान के रूप में प्रस्‍तुत करने का प्रयास किया है ताकि आधुनिक स्‍कूलों (विद्या-मन्दिरों) के विद्यार्थी धार्मिक शिक्षा से परिचित हो सकें। माडर्न स्‍कूलों में सब कुछ पढ़ाया जाता है और धर्मिक शिक्षा के नाम पर निजी मत-मज़हबों का पाठ पढ़ाया जाता है। माता-पिता अपने-अपने कामकाज में व्‍यस्‍त रहते हैं इसलिये मोर्डन बच्‍चों को सही मार्गदर्शन की अत्‍याधिक आवश्‍यकता होती है। जीवन में सही मार्गदर्शन मात्र धर्म ही प्रदान कर सकता है। मनुष्‍य कितना ही पढ़-लिख ले, कितनी ही डिग्रियाँ इकट्ठी कर ले, कितना ही धन कमा-जमा ले, फिर भी वह अपने जीवन में अधूरेपन का अनुभव करता है। धन-दौलत से जीवन की भौतिक आवश्‍यकताएँ तो पूर्ण हो सकती हैं। ज़‍न्दिगी में धन-दौलत ही सब कुछ नहीं है। सब कुछ होने पर भी हम किसी वस्‍तु की कमी को अनुभव करते हैं। जीवन के उस अधूरेपन को मात्र धर्म ही दूर कर सकता है। धर्म को जानकर ही मनुष्‍य जीवन सफल बना सकता है। यही समय की माँग है। ईशकृपा एवं शुभ कामनाओं सहित

आपका अपना
  मदन रहेजा

 प्राथमिक विभाग
(6 से 10 वर्ष के बच्‍चो के लिये प्रश्न एवं उत्तर)

  1. ऐसे कितने पदार्थ हैं जो कभी पैदा नहीं होते? (ईश्वर, जीव और प्रकृति)
  2. वो कौन सी वस्‍तुएँ हैं जो कभी नष्ट नहीं होतीं? (ईश्वर, जीव और प्रकृति)
  3. संसार को कौन बनाता है? (संसार को ईश्वर बनाता है।)
  4. हम सब कौन हैं? (हम सब मनुष्‍य हैं - आत्‍माएँ हैं।)
  5. हम कहाँ रहते हैं? (हम इस संसार में रहते हैं।)
  6. यह सारा संसार किस में रहता है? (सारा संसार भगवान् में रहता है।)
  7. भगवान् कहाँ रहता है? (ईश्वर सब जगह, सब वस्‍तुओं के भतर-बाहर तथा सब के दिल में रहता है।)
  8. क्‍या मूर्ति में भी भगवान् रहता है? (हाँ, वह मूर्ति में भी रहता है।)
  9. क्‍या मूर्ति भगवान् है? (नहीं! मूर्ति भगवान् नहीं है।)
  10. क्‍या मूर्ति और भगवान् एक ही वस्‍तु है? (नहीं ! दोनों अलग-अलग वस्‍तुएँ हैं।  
  11. मूर्ति में यदि ईश्वर रहता है तो वह हमें दिखाई क्‍यों नहीं देता? (क्‍योंकि हम मूर्ति के अन्‍दर नहीं रहते, हम मूर्ति के बाहर रहते हैं इसलिये वह हमें दिखाई नहीं देता। जहाँ हम रहते हैं ईश्वर वहाँ दिखता है।)
  12. हम तो यहाँ हैं फिर ईश्वर कहाँ रहता है? (वह हमारे अन्‍दर रहता है। हम आत्‍मा हैं, आत्‍मा में रहता है।)
  13. शरीर में आत्‍मा कहाँ रहता है? (हमारे शरीर में आत्‍मा, दोनों भृकुटियों के बीच में, आँखों के पीछे, अन्‍दर की ओर रहता है।)
  14. परमात्‍मा हमें कैसे दिखाई देता है? (आँख बन्‍द करके उसको याद करो तो उसका अनुभव अर्थात् दर्शन होने लगता है। 
  15. भगवान् को हम किस नाम से पुकारें? (ओ३म् नाम से)
  16. परमात्‍मा कितने होते हैं? (ईश्वर एक होता है जिसका नाम –‘ओ३म् है।)  
  17. क्‍या ईश्वर हमारी आवाज़ सुनता है? (वह सब की आवाज़ सुनता है, हमारे मन की आवाज़ भी सुनता है।)
  18. ईश्वर कौन सी भाषा समझता है? (वह सब की भाषा समझता है। हम अपने मन में जो भी सोचते हैं या मुँह से बोलते हैं, वह ईश्वर सब की सुनता है और सब समझता है।)
  19. ईश्वर हमारा कौन लगता है? (वह हमारा सबकुछ लगता है। ईश्वर हम सब का माता-पिता-मित्र-बन्‍धु लगता है। हम सब उस परमात्‍मा की सन्‍तान हैं। हम उसके के बच्‍चे हैं।)
  20. वह सारा समय क्‍या करता है? (परमात्‍मा हर समय हम सब की सहायता करता है। उसने हमारे लिये ही पृथ्‍वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश बनाया है। उसने हमारे लिये सूर्य, चन्‍द्रमा, तारे बनाए हैं। वह पूरा संसार बनाकर उसकी देख-भाल करता है।)
  21. हमने भूत की कहानियाँ सुनी हैं, क्‍या भूत भी होते हैं? (नहीं ! भूत-वूत कुछ नहीं होते। अच्‍छे बच्‍चों को ऐसी कहानियाँ नहीं सुननी चाहियें।)
  22. मास्‍टर जी के कमरे में टी॰ वी॰ लगी है। वे स्‍वयं देखते हैं किन्‍तु हम को देखने से मना करते हैं, ऐसा क्‍यों? (क्‍योंकि टी॰ वी॰ देखने से छोटे बच्‍चों की आँखें ख़राब होती हैं। जब आप बड़े हो जाओगे तो समझ जाओगे।)
  23. हम बड़े कैसे होंगे? (रात को जल्‍दी सोना, सवेरे जल्‍दी उठना, पढ़ाई के मन लगाके पढ़ाई करना, खेल के समय ख़ूब खेलना और ठीक समय पर भोजन करना फिर आप बड़े हो जाओगे।)
  24. हवन करने से क्‍या होता है? (हवन करने से वायु शुद्ध होती है, बुद्धि तेज़ होती है, आयु बढ़ती है और मनुष्‍य स्‍वस्‍थ रहता है और वह कभी बीमार नहीं पड़ता है।)
  25. क्‍या गाली देना बुरी बात होती है? (बहुत बुरी बात होती है। ईश्वर को भी अच्‍छा नहीं लगता इसलिये गाली देने से पाप लगता है। हमें कभी किसी को भी गाली नहीं देनी चाहिये। अच्‍छे बच्‍चे कभी किसी को गाली नहीं देते हैं।)
  26. यदि कोई हमें गाली दे तो हमें क्‍या करना चाहिये? (उसको समझाना चाहिये कि अच्‍छे बच्‍चे गाली नहीं देते, गाली देना बुरी बात है, इससे पाप लगता है।)
  27. पाप क्‍या होता है? (प्रत्‍येक बुरे काम को पाप कहते हैं। जैसे झूठ बोलना, किसी को बिना कारण के मारना, गाली देना आदि। पाप करने वाले को ईश्वर दु:ख देता है।) 
  28. क्‍या चोरी करने से भी पाप लगता है? (बिना पूछे किसी की वस्‍तु उठाकर अपने काम में लाना चोरी कहाती है। चोरी करना बहुत बड़ा पाप होता है।)
  29. यदि कोई वस्‍तु पूछकर लेंगे तो? (जिस की वस्‍तु है उससे पूछकर लेना अच्‍छी बात है। इससे कोई पाप नहीं लगता। अच्‍छे बच्‍चे किसी की वस्‍तु हो बिना पूछे कभी हाथ नहीं लगाते हैं।)   
  30. क्‍या झूठ बोलना भी पाप होता है? (हाँ! झूठ बोलना सब से बड़ा पाप होता है, इससे भगवान् बहुत बड़ा दु:ख देते हैं।)
31.  क्‍या आपस में लड़ने से भी पाप लगता है? (हाँ! हर बुरे काम करने से पाप अवश्‍य लगता है।)
32.  जब दो मित्र लड़ते हैं तो हम को क्‍या करना चाहिये? (सच्‍चे मित्र आपस में नहीं लड़ते। यदि वे लड़ते हैं तो आप उनके दोनों के बीच में जाकर खड़े हो जाएँ और दोनों के हाथ पकड़कर मिलाएँ और मुस्‍करा कर कहें आप मित्र हैं, आपस में लड़ना बुरी बात है!)
33.  व्रत का मतलब क्‍या होता है? (व्रत के दो अर्थ होते हैं। 1. बुरी बात को छोड़ने की प्रतिज्ञा करना और 2. कुछ समय के लिये भूखे पेट रहना। 
34.  व्रत किसको रखना चाहिये? (रोगी को डॉक्‍टर की सलाह के अनुसार ही कम खाना चाहिये। भूखे पेट रहने से शरीर में कमज़ोरी आती है। जो डॉक्‍टर कहे वही खाना चाहिये। उसके अलावा सब मनुष्‍यों को बुरी आदतों को हमेशा के लिये छोड़ने का व्रत लेना चाहिये अर्थात् उन आदतों को उसी समय त्‍यागने की प्रतिज्ञा करनी चाहिये या शपथ लेनी चाहिये। व्रत लेना अच्‍छी बात है।   
35.  गुरुकुल में आठ साल के बच्‍चों को यज्ञोपवीत (जनेऊ) क्‍यों पहनाया जाता है? (क्‍योंकि आठ वर्ष के बच्‍चे सब बातें समझते हैं। गुरुकुल में जब गुरु जी वेद का पठन-पाठन शुरु करते हैं तो उस समय आठ वर्ष के बच्‍चों को यज्ञोपवीत धारण कराते हैं।
36.  यज्ञोपवीत धारण करने से क्‍या होता है? (यज्ञोपवीत में तीन धागे होते हैं जो बच्‍चों को तीन गुरुओं की याद दिलाते रहते हैं 1. माता-पिता, 2. आचार्य और 3. परमात्‍मा। इन तीनों गुरुओं से हमें ज्ञान मिलता है जिससे हम जीवन में सुखी रहते हैं।)
37.  यज्ञोपवीत किस-किस रंग के होते हैं? (यज्ञोपवीत केवल सफ़ेद रंग का ही होता है।)
38.  पण्डित जी किस को कहते हैं? (जो हमें यज्ञ कराता है, धर्म की शिक्षा देता है और वेदों की बातें बताता है उस गुरु को पण्डित जी कहते हैं।)
39.  हम बच्‍चों में से कोई गोरा है और कोई काला। ऐसा क्‍यों? (हम अलग-अलग माता-पिता से उत्‍पन्‍न हुए हैं इसलिये। गोरे या काले का निर्णय परमात्‍मा करता है। जब आप बड़े हो जाओगे तो समझ जाओगे।)
40.  जब मनुय बड़ी उम्र का हो जाता है तो मरता है परन्‍तु छोटे बच्‍चे भी मरते हैं, ऐसा क्‍यों? (इस समय आप बहुत छोटे हो। जब आप पढ़-लिख कर बड़े होगे, विद्वान बनोगे तो इस रहस्‍य को समझ सकोगे। अब इतना ही समझो कि ईश्वर जो भी करता है, उसी में सब की भलाई होती है।)
41.  रात्रि में सोने से पहले हमें क्‍या करना चाहिये? (रात्रि में सोने से पहले 1. हाथ-पैर और मुँह धोने चाहियें, 2. अपने बिस्‍तर पर बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर, ईश्वर के नाम ओ३म् का जाप करना चाहिये और सब को नमस्‍ते बोलकर सोना चाहिये।)
42.  सवेरे उठकर सब से पहला काम क्‍या करना चाहिये? (सवेरे उठकर सब से पहले हाथ जोड़कर प्रभु को प्रार्थना करनी चाहिये ‘‘हे ईश्वर मैं आपका धन्‍यवाद करता/करती हूँ। मुझे सद्-बुद्धि प्रदान करो। आज का दिन हम सब के लिये शुभ और सुखदायी हो!
43.  क्‍या परमात्‍मा बच्‍चों की प्रार्थना सुनता है? (जी हाँ! सच्‍चे मन से करो तो परमात्‍मा सब लोगों की बात सुनता है।
44.  बड़ों के पाँव छूने से क्‍या होता है? (बड़ों के पैर छूने से उनकी आशीर्वाद मिलती है, उनकी दुआएँ लगती हैं जिससे हमारा मन प्रसन्‍न होता है। जो व्‍यक्ति बड़ों की आशीर्वाद प्राप्‍त करता है, उसकी 1) आयु, 2) विद्या, 3) यश और 4) बल बढ़ता है।)   
45.  नमस्‍ते करने से क्‍या होता है? (नमस्‍ते करने से आपस में मित्रता और प्रेम बना रहता है।)
46.  क्‍या नमस्‍ते सब को करनी चाहिये? (हाँ! सब को करनी चाहिये।)
47.  नमस्‍ते का मतलब क्‍या होता है? (नमस्‍ते का अर्थ होता है मैं आप को नमन करता / करती हूँ। आपका आदर करता / करती हूँ।)
48.  क्या ईश्वर को भी नमस्‍ते कर सकते हैं? (सवेरे उठते ही सब से पहले अपने मन में ईश्वर को ही नमस्‍ते करनी चाहिये।) 
49.  ईश्वर की प्रार्थना आँखें खोलकर करनी चाहिये या बन्‍द करके करनी चाहिये? (छोटे बच्‍चों को दोनों आँखें बन्‍द करके उच्‍चारण करके करनी चाहिये। बड़े लोगों को मन में करनी चाहिये।) 
50.  ईश्वर को प्रार्थना में क्‍या कहना चाहिये? (हे ईश्वर! हम सब को अच्‍छी बुद्धि प्रदान कीजिये।)
51.  प्रार्थना करने से क्‍या भगवान् ख़ुश होता है? (प्रार्थना करने से भगवान् ख़ुश नहीं होता, वह हम को ख़ुश रखता हैं।
52.  परमात्‍मा को किस समय प्रार्थना करनी चाहिये? (कहीं भी, किसी भी समय, जब आप का मन करे, उसी समय करनी चाहिये।)
53.  उपासना किसे कहते हैं? (उपासना अर्थात् पास में बैठना। ईश्वर के समीप बैठकर बातें करने को उपासना कहते हैं।
54.  क्‍या ईश्वर से बातें कर सकते हैं? (हाँ, क्‍यों नहीं! ईश्वर से हम अपने मन की सब बातें कर सकते हैं।
55.  क्‍या ईश्वर हमारी बातों का उत्तर देता है? (हाँ! आप बात करके देखिये, वह आप से बात करेगा और प्यार भी करेगा।       

आओ बच्‍चो! अब हम मिलकर मन्‍त्र पाठ करेंगे और ईश्वर से प्रार्थना करेंगे। सब आप हाथ जोड़े, आँखें बन्‍द करें और एक स्‍वर में पाठ करें :
ओ३म्! असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्‍योतिर्गमय। मृत्‍योर्मा अमृतं गमय

हे ईश्वर ! आप हमें असत्‍य से छुड़ाकर सत्‍य की ओर ले चलिये!
हे परमेश्वर ! आप हमें अज्ञानता से छुड़ाकर ज्ञान की ओर ले चलिये!
हे भगवान् ! आप हमें मृत्‍यु से छुड़ाकर अमृत की ओर ले चलिये!

ओ३म्! शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
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Saturday, November 27, 2010

Vedic Prayers for English Speaking Children

This is first "Prayer Blog" for English speaking children.
I'll start Vedic Prayers with the 'Gayatri Mantra', the most popular Vedic Mantra, with easily understandable meaning in simple words. Viewers are requested to make their school going children to learn from this blog ... Madan Raheja.


Gayatri Mantra:

OM! Bhur Bhuvah Swaha.
Tatsa Vitur Vare Nyam
 Bhargo Devasya Dhee Mahi.
Dhiyo Yo Nah Pracho Dayat.

Meaning: O God! You are the greatest. We are your children. We remember you. Make us wise so that we live happily in this world. May all be happy!

Tuesday, November 9, 2010

मूर्ति पूजा का सही अर्थ .....Madan Raheja

प्राय: लोग पूजा का अर्थ नहीं जानते क्‍यों कि वे ऐसा समझते हैं कि किसी भी देवी-देवता की काल्‍पनिक मूर्ति के सामने  हाथ जोड़ने से ईश्‍वर की पूजा पूर्ण हो जाती है। वास्‍तव में ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होता। हमें सब से पहले मूर्ति-पूजा का सही अर्थ समझना होगा। मिट्टी या पत्‍थर की बनी  मूर्ति वास्‍तव में निराकार परमात्‍मा की मूर्ति नहीं होती क्‍यों कि ईश्‍वर निराकार है, आँखों से दिखाई देने वाली वस्‍तु नहीं है। पूजा का अर्थ होता है - आज्ञा का पालन करना, आदर-सत्‍कार करना, अपने कर्तव्‍यों का ठीक-ठीक पालन करना इत्‍यादि। पत्‍थ्‍र न तो सुन सकते हैं, न ही बोल सकते हें, न खाते हैं और न ही पी सकते हैं क्‍यों कि पत्‍थर की मूर्ति जड़ होती है।  जीवित माता-पिता, बड़े-बुज़ुर्ग, विद्वान गुरु इत्‍यादि साकार मूर्तिमान देवता होते हैं, आप की बातें सुन सकते हैं, आपको सलाह दे सकते हैं, शिक्षा प्रदान कर सकते हैं अत: उनकी आज्ञाओं का पालन करना उनकी पूजा कहाती है। ईश्‍वर की पूजा का अर्थ होता है परमात्‍मा के गुणों को तथा ईश्‍वरीय वाणी "वेद" में कही बातों को अपने जीवन में धारण करना, आज्ञाओं का पालन करना। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें किसी पत्‍थर के समक्ष हाथ जोड़ने या फूल चढ़ाने या दीपक जलाने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। निाराकार परमात्‍मा के स्‍थान पर जड़ वस्‍तु की पूजा करना ईश्‍वर का अपमान है, उसका निरादर करना है। 
हम मनुष्‍य सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहाए जाते हैं। ईश्‍वर ने हमें बुद्धि प्रदान की है। सोचें, विचारें, चिन्‍तन करें। अपने जीवित माता-पिता तथा परमात्‍मा की आज्ञाओं का पालन करें - यही पूजा है। ईश्‍वर सब को सद्बुद्धि प्रदान करें। 
मेरी आगामी पुस्‍तक 'मूर्तिपूजा या ईश्‍वरोपासना' 2012 में प्रकाशित होने वाली है,उसे अवश्‍य पढ़ें। मदन रहेजा

Eternal Trinities

त्रिशब्‍द अटूट सम्‍बन्‍ध

अनादि तत्त्‍व = ईश्‍वर, जीव और प्रकृति।
प्राकृतिक मूल गुण = सत्‍व, रजस् और तमस्।
जगत के कारण = निमित्त, उपादान और साधारण।
"ओ३म्" के अक्षर = अ, ऊ  और म्।
वैदिक महाव्‍याहृतियाँ = भूः, भुवः और स्‍वः।
ईश्‍वर के गुण = सर्वव्‍यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान।
ईश्‍वर के कर्म = सृष्टिकर्त्ता, ज्ञानप्रदाता और कर्मफलदाता।
ईश्‍वर के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और आनन्‍दस्‍वरूप।
जीवात्‍मा के गुण = एकदेशी, अल्‍पज्ञ और अल्‍पसामर्थ्‍यवान। (मनुष्‍य जाति)   
जीवात्‍मा के कर्म = भोग, योग और मोक्षप्राप्ति का प्रयत्‍न। (मनुष्‍य जाति)     
जीवात्‍मा के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और कर्मशील। (मनुष्‍य जाति)    
प्रभु मिलन के साधन = ज्ञान, कर्म और उपासना।
जीवन के परम-सत्‍य = जन्‍म, जीवन और मृत्‍यु।
साधना के साधन = ज्ञान, भक्ति और वैराग्‍य।
सफलता के शत्रु = स्‍वार्थ, आलस्‍य और अहंकार।
कर्म के साधन = मन, वचन और कर्म।
कर्म के भेद = शुभ, मिश्रित और अशुभ।
कर्म के रूप = अकाम, सकाम और निष्‍काम।
कर्मफल की प्राप्ति = जाति, आयु और भोग।
कर्मफल के प्रकार = फल, प्रभाव और परिणाम।
त्रिविध दुःख = आध्‍यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।
वस्‍तु के रूप = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और सूक्ष्‍मतम।
तीन शरीर = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और कारण।
तीन अवस्‍थाएँ = जागृत, स्‍वप्‍न, सुषुप्ति।
काल की स्थिति = भूत, वर्तमान और भविष्‍य।
जीवन की स्थितियाँ = बचपन, यौवन और बुढापा।
लोक परिस्थियाँ = स्‍वर्ग, नरक और वैराग्‍य।
लड़ाई-झगड़े के कारण = धन, स्‍त्री और भूमि।
वाद-विवाद के कारण = अज्ञानता, अहंकार और निर्बलता। 
तीन लिंग = स्‍त्रीलिंग, पुर्लिंग और नपुंसकलिंग।
मानव व्‍यवहार = आत्‍मवत्, सदाचार और मधुर=भाषण।
मानव कर्तव्‍य = सेवा, सत्‍संग और स्‍वाध्‍याय।
आर्य की परिभाषा = धर्माचारी, सेवाधारी और निर्हंकारी।
मनुष्‍य की पहचान = संस्‍कार, संस्‍कृति और मानवता।
आर्य की पहचान = धर्म, कर्म और आचरण।
मित्र की पहचान = आत्‍मवत् व्‍यवहारी, विघ्‍न निवारक और निःस्‍वार्थी।
शत्रु की पहचान = अत्‍यन्‍त मधुरभाषी, अवसरवादी और अत्‍यन्‍त स्‍वार्थी। 
गुरु की पहचान = मार्गदर्शक, धार्मिक और निःस्‍वार्थी।
संन्‍यासी की पहचान = प्राणायाम, प्रवचन और परोपकार।
धार्मिक की पहचान = धर्मनिष्‍ट, परोपकारी और सर्वहितैषी।  
मनुष्‍य का गुरु = ईश्‍वर, वेद और धर्मनिष्‍ठ माता=पिता=आचार्य।
स्‍वस्‍थ जीवन रहस्‍य = शुद्धाहार, शुद्धविहार और शुद्धव्‍यवहार।
घर का अर्थ = माता, पिता और संतान।
परिवार की परिभाषा = माता=पिता, पुत्र=पुत्रवधु और संस्‍कारी संतानें।
मूर्तिमान देवता = पितर (जीवित माता, पिता), गुरु (शिक्षक, आचार्य एवं आध्‍यात्मिक मार्गदर्शक तथा पति के लिये धर्मपत्‍नी एवं पत्‍नी के लिये पति) और अतिथिगण।
यज्ञ की परिभाषा = देव-पूजा, संगति-करण और दान।
यज्ञ की भावना = त्‍याग, परोपकार, और सेवा।
यज्ञ की सार्थकता = शुद्धता, समर्पण और वैदिक-विधि।
स्‍वाध्‍याय सामग्री = वेद, आप्‍त-पुरुष व्‍यवहार और स्‍व-अध्‍याय।
स्‍वाध्‍याय प्रक्रिया = पठन-पाठन, श्रवण-प्रवचन और सदाचरण।
सत्‍संग के पात्र = सदाचारी, धर्माचारी और धार्मिक विद्वान।
जप की विधि = नाम-स्‍मरण, अर्थ-चिन्‍तन और आचरण।
धर्म की विधि = सत्‍य, अहिन्‍सा और प्रेम।
श्राद्ध की विधि = सत्‍याचरण, पितर-सम्‍मान और समर्पण।
प्रेम की विधि = त्‍याग, समर्पण और निरभिमानता।
पूजा की विधि = सदुपयोग, मन-वचन-कर्म से सेवा और आज्ञा-पालन।
ध्‍यान की विधि = मौनावस्‍था, अर्थसहित प्रभु-नाम स्‍मरण और निरन्‍तराभ्‍यास।
समाधि की विधि = निर्विषयं मनः, निर्विषयं मनः और निर्विषयं मनः।
योग की उपलब्धि = प्रेम, समानता और आनन्‍द।



Eternal Trinities


 
त्रिशब्‍द अटूट सम्‍बन्‍ध

अनादि तत्त्‍व = ईश्‍वर, जीव और प्रकृति।
प्राकृतिक मूल गुण = सत्‍व, रजस् और तमस्।
जगत के कारण = निमित्त, उपादान और साधारण।
"ओ३म्" के अक्षर = अ, ऊ  और म्।
वैदिक महाव्‍याहृतियाँ = भूः, भुवः और स्‍वः।
ईश्‍वर के गुण = सर्वव्‍यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान।
ईश्‍वर के कर्म = सृष्टिकर्त्ता, ज्ञानप्रदाता और कर्मफलदाता।
ईश्‍वर के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और आनन्‍दस्‍वरूप।
जीवात्‍मा के गुण = एकदेशी, अल्‍पज्ञ और अल्‍पसामर्थ्‍यवान। (मनुष्‍य जाति)   
जीवात्‍मा के कर्म = भोग, योग और मोक्षप्राप्ति का प्रयत्‍न। (मनुष्‍य जाति)     
जीवात्‍मा के स्‍वभाव = सत्‍य, चेतन और कर्मशील। (मनुष्‍य जाति)    
प्रभु मिलन के साधन = ज्ञान, कर्म और उपासना।
जीवन के परम-सत्‍य = जन्‍म, जीवन और मृत्‍यु।
साधना के साधन = ज्ञान, भक्ति और वैराग्‍य।
सफलता के शत्रु = स्‍वार्थ, आलस्‍य और अहंकार।
कर्म के साधन = मन, वचन और कर्म।
कर्म के भेद = शुभ, मिश्रित और अशुभ।
कर्म के रूप = अकाम, सकाम और निष्‍काम।
कर्मफल की प्राप्ति = जाति, आयु और भोग।
कर्मफल के प्रकार = फल, प्रभाव और परिणाम।
त्रिविध दुःख = आध्‍यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।
वस्‍तु के रूप = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और सूक्ष्‍मतम।
तीन शरीर = स्‍थूल, सूक्ष्‍म और कारण।
तीन अवस्‍थाएँ = जागृत, स्‍वप्‍न, सुषुप्ति।
काल की स्थिति = भूत, वर्तमान और भविष्‍य।
जीवन की स्थितियाँ = बचपन, यौवन और बुढापा।
लोक परिस्थियाँ = स्‍वर्ग, नरक और वैराग्‍य।
लड़ाई-झगड़े के कारण = धन, स्‍त्री और भूमि।
वाद-विवाद के कारण = अज्ञानता, अहंकार और निर्बलता। 
तीन लिंग = स्‍त्रीलिंग, पुर्लिंग और नपुंसकलिंग।
मानव व्‍यवहार = आत्‍मवत्, सदाचार और मधुर=भाषण।
मानव कर्तव्‍य = सेवा, सत्‍संग और स्‍वाध्‍याय।
आर्य की परिभाषा = धर्माचारी, सेवाधारी और निर्हंकारी।
मनुष्‍य की पहचान = संस्‍कार, संस्‍कृति और मानवता।
आर्य की पहचान = धर्म, कर्म और आचरण।
मित्र की पहचान = आत्‍मवत् व्‍यवहारी, विघ्‍न निवारक और निःस्‍वार्थी।
शत्रु की पहचान = अत्‍यन्‍त मधुरभाषी, अवसरवादी और अत्‍यन्‍त स्‍वार्थी। 
गुरु की पहचान = मार्गदर्शक, धार्मिक और निःस्‍वार्थी।
संन्‍यासी की पहचान = प्राणायाम, प्रवचन और परोपकार।
धार्मिक की पहचान = धर्मनिष्‍ट, परोपकारी और सर्वहितैषी।  
मनुष्‍य का गुरु = ईश्‍वर, वेद और धर्मनिष्‍ठ माता=पिता=आचार्य।
स्‍वस्‍थ जीवन रहस्‍य = शुद्धाहार, शुद्धविहार और शुद्धव्‍यवहार।
घर का अर्थ = माता, पिता और संतान।
परिवार की परिभाषा = माता=पिता, पुत्र=पुत्रवधु और संस्‍कारी संतानें।
मूर्तिमान देवता = पितर (जीवित माता, पिता), गुरु (शिक्षक, आचार्य एवं आध्‍यात्मिक मार्गदर्शक तथा पति के लिये धर्मपत्‍नी एवं पत्‍नी के लिये पति) और अतिथिगण।
यज्ञ की परिभाषा = देव-पूजा, संगति-करण और दान।
यज्ञ की भावना = त्‍याग, परोपकार, और सेवा।
यज्ञ की सार्थकता = शुद्धता, समर्पण और वैदिक-विधि।
स्‍वाध्‍याय सामग्री = वेद, आप्‍त-पुरुष व्‍यवहार और स्‍व-अध्‍याय।
स्‍वाध्‍याय प्रक्रिया = पठन-पाठन, श्रवण-प्रवचन और सदाचरण।
सत्‍संग के पात्र = सदाचारी, धर्माचारी और धार्मिक विद्वान।
जप की विधि = नाम-स्‍मरण, अर्थ-चिन्‍तन और आचरण।
धर्म की विधि = सत्‍य, अहिन्‍सा और प्रेम।
श्राद्ध की विधि = सत्‍याचरण, पितर-सम्‍मान और समर्पण।
प्रेम की विधि = त्‍याग, समर्पण और निरभिमानता।
पूजा की विधि = सदुपयोग, मन-वचन-कर्म से सेवा और आज्ञा-पालन।
ध्‍यान की विधि = मौनावस्‍था, अर्थसहित प्रभु-नाम स्‍मरण और निरन्‍तराभ्‍यास।
समाधि की विधि = निर्विषयं मनः, निर्विषयं मनः और निर्विषयं मनः।
योग की उपलब्धि = प्रेम, समानता और आनन्‍द।